Friday, 25 December 2015

दिहिंग

ना जाने क्या जल्दी थी वापस जाने की
शायद आखिरी सेमेस्टर था इसलिए
छुट्टियां सच मै बङे दिन की लग रही थी
रात को इस उत्सुकता मे नींद नही आती थी की कल एक और दिन कम हो जायेगा
कितनी पराई लगी थी पहले दिन वो जगह
आज वहाँ जाने के लिए तड़प रहे है
इतनी खुशियाँ कैद है वहाँ कि
हर कोने मै एक मुस्कान नज़र आती है
उसको अब होस्टल कहने का मन नही करता
मेरा घर मेरा दिहिंग ये सुनना अच्छा लगता है
ना जाने कैसा लगेगा जब यहाँ से जायेंगे
डर लगता है सोच के वापस एक नयें माहौल मे जायेंगे
पर ये जरूर पता है
जितना सुकून वहाँ जाकर मिलता था शायद ही मिले अब कहीं
वो लोग शायद ही मिले अब कहीं

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